(मूल पद्य, शब्दार्थ और भावार्थ-सहित
टीकाकार: स्वामी दयानन्दजी महाराज
सम्पर्क सूत्र-9955832285, 9472612881
महर्षि मेँहीँ धाम, मणियारपुर, बौंसी, बाँका )
सुनो प्रभु एक विनय यह मोर ।।टेक।।
अति अभिलाष करूँ तुव दशन, पर न बुद्धि अरु जोर ।
जेहि विधि होवै सफल मनोरथ, चहूँ कृपा तस तोर ।।
कहत अरूप स्वरूप तुम्हारा, कृपापात्र जो तोर ।
आदि अंत अरु मध्य विहीना, क्षर अक्षर वहि ओर ।।
अलख अपार वो अगम अगोचर, नहिं मन बुधि को दौर ।
ऐसा तेरा रूप प्रभु है, कहत सन्त दे जोर ।।
यह स्वरूप मम दृष्टि गहे किमि, मैं तो विषय-चकोर ।
धरती पड़ा छुवन अम्बर की, भाँति नीच मति मोर ।।
अपने से हूँ निराश आपसे, आशा मुझे अथोर ।
देहु दरस दरसनियाँ ‘शाही’, विनवत हैं कर जोर ।।
साधो भाई हरि गुरु एकहि जानो ।
जोई हरि हैं सोई गुरु हैं, भेद तनिक नहिं आनो ।।
संत कबीर कह्यो गुरु साहब, साखी शब्द प्रमानो ।
(गुरु) पारब्रह्म सदा नमस्कारउ, बाबा नानक भानो ।।
तुलसिदास नररूप हरी गुरु, मानस माहिं बखानो ।
सूरदास निज अंत समय में, कह्यो विलग नहिं मानो ।।
चरनदास की बानी पढ़िये, गुरु बिन और न जानो ।
साहब से सद्गुरू भये यह, दास गरीब बखानो ।।
ऐसहिं और संत सद्ग्रंथहिं, कह्यो बात मन मानो ।
जो हरि गुरु में अंतर माने, ‘शाही’ भय ठहरानो ।।
भइया गुरु बाबा के महिमा महान बा ,
साखी वेद पुरान बा ना ।।
गुरु ब्रह्मा विष्णु रूप, हइर्ं शिव के सरूप ,
नाहीं इनका से बढ़ल केहू जहान बा ।।
गुरु ज्ञान दीप बारैं, मोह तिमिर निवारैं ,
गुरु भव से पार उतारैं, जिव हलकान बा ।।
जग में गुरु पद रेनु, कल्पतरु कामधेनु ,
बिना सेये नाहीं, केहू के कल्यान बा ।।
हिय हरी रूप जानी, भज गुरु अवढर दानी ,
‘शाही’ इनका छोड़ि दूसर के भगवान बा ।।
अरे मन अब भी तो, तू चेत ।
क्या क्या दशा हो चुकी तेरी, फिर भी पड़ा अचेत ।।1।।
झूठे जग में सुख प्रतीत कर, आज नहीं कल की आशा पर । जनम मरण दुख लेत ।।2।।
मेरा मेरी कहते जिसको, नदी नाव संयोग सरिस सो ।
तन धन स्वजन समेत ।।3।।
बीते बहुत समय की सुधिकर, जो प्रभु ने दी थी किरपा करि ।
भव दुख तरने हेत ।।4।।
है लम्बा जीवन आगे का, ‘शाही’ इसे सुखी करने का ।
केवल गुरु संकेत ।।5।।
सुनो गुरुदेव जू मेरे, पतित यह दास तेरा है ।
गहा जब से शरण तेरा नहीं औरों को हेरा है ।।
पुकारा जब कभी गुरुवर तुम्हीं को ही पुकारा है ।
गुरु मैं सत्य कहता हूँ, हमारा तूँ ही सहारा है ।।
तुम्हारे ही दया के दान, से मेरा भला होगा ।
लगन को पार यह नैया, गुरु एक आश तेरा है ।।
भरोसे मैं तुम्हारे हूँ, जो चाहो सो करो गुरुवर ।
तुम्हें तजि और ढूँढ़न को, न दिल में मैं विचारा है ।।
गुरु मैं जानता यों हूँ, कि तू सर्वज्ञ समरथ हो ।
पुकारा प्रेम से जिसने, (उसका) हुआ नैया किनारा है ।।
करूँ गुरुदेव मैं विनती, नहीं इसकी मुझे युगती ।
करो पूरन मेरी भक्ती, गुरु ‘शाही’ तुम्हारा है ।।
गुरु मोहि आश बड़ी है तोर ।
तुम बिन और नहीं कोउ मेरा, साँच कहत बन्दीछोर ।।
लियो लगाइ शरण अपने जिमि, तिमिहि निबाहो ओर ।
मेरो गुण अवगुण नहिं चितवो, हौं मैं जो कछु तोर ।।
जानि अजानि शरण कवनिउ विधि, जो आयउँ तो तोर ।
आये शरण चरण के टारहु, कहाँ उचित यह तोर ।।
तुम हो दीनदयाल दयानिधि, करहु दया गुरु मोर ।
बिनु तुव दया पार हो नैया, ‘शाही’ हृदय न ठौर ।।
नहीं था कोई पूछनहार ।
जब से दया भई सतगुरु की, लगे रहत दो चार ।।
थी लाचारी अन्न-वस्त्र अरु, रहने के घर-द्वार ।
अब तो तव प्रसाद सद्गुरु कुछ, पावत दीन सहार ।।
था ऐसा नहीं जगह जहाँ मैं, जा पाता आधार ।
अब तो तव प्रसाद जहँ जाता, मातु-पिता सम प्यार ।।
जग में जो कुछ चाहिय जैसा, सुख सुविधा स्त्रोकार ।
तुम्हरी दया सुलभ भई मोको, हे गुरु परम उदार ।।
अब तो बात रही बाकी जो, जीवन कारज सार ।
वह अपनी अनपायनी भक्ति दे, ‘शाही’ जन्म सुधार ।।
गुरुदेव तेरा जीना, जबतक जहान में हो ।
होकर तुम्हारा जीऊँ, यह दिल वो जान में हो ।।
हरदम रहूँ तुम्हारे, उपदेश के सहारे ।
तुम्हारे गुणों का गायन, हरदम जबान में हो ।।
तुव नाम का निरन्तर, सुमिरन किया करूँ मैं ।
दर्शन तुम्हारा हमको, हर दम धियान में हो ।।
इस आँख से भी देखूँ, दिवि दृष्टि से भी पेखूँ ।
‘शाही’ विशेष दर्शन, आतम गियान में हो ।।
सतगुरु अब ताकब कहिया ?
अब तो वह भी समय सीस पर, जब छूटी देहिया ।।
बड़ बड़ आश लगाइ दास यह, चरण शरण गहिया ।
पर अफसोस भाग्य का मारा, जहँ का तहँ रहिया ।।
तव उपदेश सफल जीवन तब, ईश दरश लहिया ।
सबका ईश्वर एक मिलन पथ, भी एकहि कहिया ।।
वह अंतर पथ ज्योति शब्द का, ताहि मिलै तहिया ।
‘शाही’ दृढ़ विश्वास हृदय हो, कृपादृष्टि जहिया ।।
सुनहू सत्यलोक के वासी सतगुरु मोरी रे ।
विनय करौं कर जोरी रे ना ।।टेक।।
मेरी भवसागर में नैया, नाहीं कोई है खेवइया ।
गुरु हे छाई घटा घनघोर ओर नहिं छोरी रे ।
सूझे कवनिउ ओरी रे ना ।।
चारो दिस की चार बयारी, करती डगमग नाव हमारी ।
ता पर काम क्रोध मद लोभ बैठि झकझोरी रे ।
चाहत भव जल बोरी रे ना ।।
मोहे ग्रसित किया है भारी, पाँचों विषयन की बीमारी ।
तातें निज बल बुधि कुछ काम करै नहिं मोरी रे ।
होती दिन-दिन खोरी रे ना ।।
मैं आया शरण तुम्हारी, तुम तो हो अनाथ दुखहारी ।
‘शाही’ जनम जुआ है जात जगत से हारी रे ।
भावै करो तुम्हारी रे ना ।।
मनुज में मानवता का मोल ।
मानवताविहीन प्राणी ढोता, मानव का खोल ।।
माटी के बहु भाँति खिलौने, खेलत बाल किलोल ।
है अंतर केवल आकृति का, देखो हिय में तोल ।।
मानव अरु दानव की आकृति, है दोनों सम तोल ।
प्रकृति भेद बस दो कहलावत, देखो पोथी खोल ।।
मानवता सुख शांति प्रदायिनि, कर जीवन अनमोल ।
पर आश्रित सद्गुरु-कृपा पर, ‘शाही’ कह दे ढोल ।।
उन्हीं को मानवता कहते ।
जिनमें पर दुख टीस मारता, सुखी देख खिलते ।।
दया दीनता और शीलता, क्षमा भाव गहते ।
पर उपकार हेतु निज तन पर, घाम सीत सहते ।।
श्रेष्ठ जनों के आवभगति, में मन मुदिता लहते ।
स्वारथ-रहित अचल स्वधर्म में, नेक नहीं टलते ।।
तन मन वचन कर्म से सब विधि, सुचिता निरबहते ।
षट् विकार अरु पंच पाप से, सदा सजग रहते ।।
तजि कुसंग सत्संग बैठ निज, जीवन को गढ़ते ।
लोक और परलोक सुखी हों, ‘शाही’ प्रभु भजते ।।
गुरु युगती से ताकु गगन में, तब झलकै एक तारा रे ।
वह तारा गुरुदेव बतावैं, जोति महल का द्वारा रे ।।1।।
दुति नक्ष़त्र अरु छटा चन्द्र को, सूरज प्रभा नियारा रे ।
गुरु प्रसाद लखैं जोगी जन, करि अन्दर पैसारा रे ।।2।।
शब्द महल में सुरत चलै तब, पकड़ि शब्द की धारा रे ।
पैठत सुनत शब्द अनहद जो, बाजत विविध प्रकारा रे ।।3।।
शब्द महल में सार शब्द धुनि, जो भवजल कढ़िहारा रे ।
‘शाही’ सुरत लगै तासों तब, सतगुरु सैन सहारा रे ।।4।।
भजो रे मन संत चरण सुखदाई ।।टेक।।
संत चरण है नाव तरन को भव वारिधि दुखदाई ।
उनके चरण शरण होइ बैठो, भव दुख जाय नसाई ।।
यश ऐश्वर्य मुक्ति और भलपन, बुद्धि और चतुराई ।
औरों जो कुछ जाहि मिले, जब संत कृपा तें पाई ।।
परमातम साकार संत हैं, यह गुरु ज्ञान बताई ।
नहिं कछु भेद संत भगवन्तहिं, वेद पुरानहु गाई ।।
अगम अगाध संत की महिमा, को अस है जो गाई ।
ब्रह्मा विष्णु महेश शारदा, यहु जन गये लजाई ।।
संत की महिमा संतहि जानैं, और नेति कहि गाई ।
तातें ‘शाही’ जानि परम हित, रहहु संत सरनाई ।।
चेत मन जात अवधि है बीती ।।टेक।।
लख चौरासी योनि भरमि करि, तन पायो सुपुनीती ।
ऐसो नरतन पाय हाय क्यों, भजत न मायातीती ।।
तू जो उरझे विषय बाग में, सुख की करि परतीती ।
ऐसा ख्याल त्याग मन मूरख, यह बुद्धी विपरीती ।।
करि सत्संग ज्ञान खंजर लै, षट् रिपु कै करु ईती ।
अरु जप ध्यान दृष्टि करु योगा, कहे गुरु के रीती ।।
याही सेवा मायापति के, करु हे मन सह प्रीती ।
‘शाही’ बड़े भाग हैं उनके, भजते मायातीती ।।
धर्मप्रेमियों उठो, ऐ सत्संगियों जागो, है मिटाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।टेक।।
जीव पर तीन परदा है छाया, उसको साधन से जो न हटाया ।
उसने पाया जो धन, देव-दुर्लभ ये तन, है गँवाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।1।।
जिसने अंतर के तम को हटाया, ज्योति टप सारधुन में समाया ।
उसका जीवन सफल, पाया नर-तन का फल, मोक्ष पाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।2।।
तुम भी चेतो करो न अबेरा, भेद ले गुरु से कर लो निबेरा ।
क्यों प्रभू छोड़कर, जग नाता जोड़कर, हो भुलाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।3।।
नाम जप ध्यान कर, मन को मोड़ो, बिंदु पै दृष्टि-धारों का जोड़ो ।
उसपर मन को लगा, दिव्य ज्योति जगा, शब्द पाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।4।।
‘शाही’ कहता ये है सन्तवाणी, सन्त सतगुरु कृपा से है जानी ।
इसपर कर लो अमल, जो चाहो अपना भल, दुख मिटाना ।
जीव का योनि में आना-जाना ।।5।।
यही है जीवों की माँग ।
दुख छूटै सुख मिलै शांतिमय, नित्य ज्ञान से लाग ।।
पर सुख ढूँढै जीव इन्द्रिय संग, पंच विषयन के बाग ।
जाहि सुहाइ याहि इन्द्रिन कूँ, सोइ सुख समुझ न लाग ।।
इन्द्रिय सुख है दुख विहीन नहिं, जैसे सावन साग ।
तातें सत जन देत सिखावन, विषय जहर सम त्याग ।।
सच्चा सुख आतम अनुभव है, सो पावै जो जाग ।
श्री गुरुदेव चरण-पंकज में, करि ‘शाही’ अनुराग ।।
बबुआ ऊठ देख कबके भइल बिहान बा ।
आलस में बड़ि हानि बा ।।टेक।।
दिन बहुते गइल बीत, तोहरा सूतले अचीत ।
जान आज के दिन के आजे भर परिमान बा ।।आलस में0।।
अइसन अवसर खोई, जनि होहू भव बटोही ।
तब के आँसू पोंछे वाला न जहान बा ।।आलस में0।।
सुन-समझ संत बानी, कर आपन हित जानी ।
‘शाही’ इहै भव से तारे वाला यान बा ।।आलस में0।।
प्रभु जी ! तुव महिमा मैं जानी । मेरे सतगुरु भाखि बखानी ।।
प्रभु जी ! तुम व्यापक चहुँ ओरा । नहीं तुममें ओर है छोरा ।।
प्रभु जी ! तुम सर्वान्तर्यामी । तुम हो अखिल शक्ति के स्वामी ।।
प्रभु जी ! तुमने जग उपजाया । जामें फिरता जीव भुलाया ।।
प्रभु जी ! तुम अखंड सुख रूपा । तुव मिलि जीव होत तद्रूपा ।।
प्रभु जी ! तुमको वे पाते हैं । ‘शाही’ सतगुरु अपनाते हैं ।।
हमें सतगुरु शरण दीजै, नहीं कोई सहारा है ।
पड़ी भव-भँवर में नैया का, केवल तू सहारा है ।।1।।
जगत में कहने वाले यों, घनेरो मैं तुम्हारा हूँ ।
मगर हिय हेरकर देखा, सभी धोखा पसारा है ।।2।।
उबारो जनि करो देरी, विरद को याद कर अपने ।
समय के साथ बढ़ता जा रहा, धड़कन हमारा है ।।3।।
तुम्हारा है हुआ आना यहाँ, सतधाम को तजकर ।
हमारे ही लिये आकर, हमें कैसे बिसारा है ।।4।।
बढ़ा अजानु भुज दोनों, प्रकाश अरु शब्द का मुझको ।
लगा लो अपने चरणों में, प्रभू ‘शाही’ तुम्हारा है ।।5।।
हरि तुम नर तन दे क्या कीन्हों ।
जौं नहिं मानवता अति उत्तम, मोहि कृपा करि दीन्हों ।।
तन नर अरु स्वभाव सूकर का, मेल नहीं यह नीका ।
अति सुन्दर यह सृष्टि तुम्हारी, है इतनहिं से फीका ।।
करहु कृपा दीजै मानवता, तुम्हरी सृष्टि सजेगी ।
साथहि साथ कृपानिधान, मेरी भी बात बनेगी ।।
सुनहु दयामय तब प्रसाद, ‘शाही’ का जीवन धन्य हो ।
पद सरोज मकरन्द मधुप इव, पी पुलकित तन मन हो ।।
धनि बानी, धनि बानी, धनि बानी, रउवाँ धनि बानी ।
गुरु रउवाँ धरतिया पर धनि बानी ।।
यहि रे धरतिया के भाग बढ़ल बा,
जहिया से राउर पाँव पड़ल बा ,
हरषित सब ऋषि मुनी बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
रउरे ज्ञान के डंका बजल बा,
हर मुख में यह नारा लगल बा ।
सबके प्रभु जी एक बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
प्रभू एक प्रभू डगर एक बा,
बाहर नहीं वोकर भितरे रेख बा ।
जहवाँ पर बैठल स्वयं बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
वही रे डगरिया पर चलिहैं सुरतिया,
प्रभु मिले के लेके अटल पिरितिया,
बिरहा कै बान विकल बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
रउरे महिमा के बा ऐसन कहानी,
समुझे में नीक नहीं परत बखानी ।
हम तो मने मन मगनबानी ।। गुरु रउवाँ ।।
जेकर धरतिया पर केहू ना सहारा,
वोकरो कहे वाला रउवें हमारा ।
‘शाही’ के माई-बाप बानी ।। गुरु रउवाँ ।।
तुम्हरी ही कृपा पै टिके हम हैं,
नहीं तो मेरा सहारा कहाँ जग में ।
है तुम्हारा विरद अधमोद्धारन,
नहीं तो मेरा उबारा कहाँ जग में ।।
असहाय भटकता फिरता यों,
लावारिश कूकर सूकर ज्यों ।
गहकर मेरा बाँह सनाथ किया,
नहीं तो मेरा पुछारा कहाँ जग में ।।
अति स्नेह सहित अपना करके,
हृदय से मुझे लगा करके ।
संतों का ज्ञान सिखाया मुझे,
नहीं तो मेरा सुधारा कहाँ जग में ।।
सब भाँति सदा से तूने ज्यों,
मेरा सब सार सम्हाल किया ।
त्यों आगे भी पार लगा देना,
नहीं तो ‘शाही’ का किनारा कहाँ जग में ।।
झट लिपटो रे प्यारे गुरु के चरण में, सब सुख उनहीं माहिं ।।टेक।।
गुरु के चरण में जाकर मन रमें, भाग बड़ो अति ताहि ।
छूटत प्यारे हो, भव कर दुख सारे, काल के दाल गले नाहिं ।।
तन मन धन सब, गुरु के चरण पर, जो रे अरपि हरषाहिं ।
पालि वचन दृढ़, गुरु को शीश धरि, मन ही मन पुलकाहिं ।।
गुरु की कृपा प्यारे, सिधि शुभ गति सारे, जानि चरण लिपटाहिं ।
राखत चरण चित, हर क्षण यहि विधि, लोभिहिं जिमि धन माहिं ।।
जिनको जगत माहिं, मात्र गुरु गति आहि, सपनेहुँ दूसर नाहिं ।
ऐसे भगत कहँ, जोड़ि दोऊ कर, ‘शाही’ शीश नवाहिं ।।
अब तो आन पड़ा चरणों में, सतगुरु ताको न ताको ।
नहिं छाड़ि चरण जाना है, सतगुरु ताको न ताको ।।1।।
हूँ हार जगत से आया, हिय हेरि तुम्हें अपनाया ।
गौरव तुम पर है मेरी, लाज अब राखो न राखो ।।2।।
तुम अधम उधारण स्वामी, सबके हो अंतर्यामी ।
यह बात विदित सबको है, प्रकट मुख भाखो न भाखो ।।3।।
है टेक तुम्हारा ऐसा, पापी चाहे हो जैसा ।
है भव से पार लगाना, टेक यह राखो न राखो ।।4।।
मैं भला-बुरा हूँ जैसा, पर जगत जानता ऐसा ।
‘शाही’ का सतगुरु मेँहीँ, भले तुम झाँको न झाँको ।।5।।
मेरे मुरशिद सुनो, मेरे रहबर सुनो, दास्ताना ।
तेरा जाना चमन का वीराना ।।टेक।।
यहाँ खिलते थे गुल हाय! कैसे, कैसा रौनक बहारें थीं कैसी ।
लेकिन अब तो वही कोई रौनक नहीं, सुनसाना ।। तेरा0।।
तेरा दीदार क्या ही अजब था, निगाह जिसका पड़ा जैसे जब था ।
झूम जाता था मन, तो होता ऐसा अमन, इन्तहाना ।। तेरा0।।
सुन सुखन तेरा कायल हुआ ना, कहीं ऐसा देखा ना सुना ना ।
लाखों की जिन्दगी, बन गई है बंदगी, सुन तराना ।। तेरा0।।
पाक कदमों का पाकर सहारा, है जिंदगी खैरियत में गुजारा ।
अंत में है आरजु ‘शाही’ की जुस्तजू, ना भुलाना ।। तेरा0।।
देर अब जनि करो हे सतगुरु, देर अब जनि करो ।।टेक।।
दीप जीवन बुझन चाहत, तेल आयू सरो ।
तुमहिं देखत नरक कुण्ड में, नाथ चाहत परो ।।
जाहु अवगुण भूलि जन के, भला बुरा तुम्हरो ।
करि कृपा मुझ दीन पर अब, बेगि विपदा हरो ।।
हो अधम तारे अनेको विदित यह सगरो ।
दास ‘शाही’ बेर इतनी, देर काहें करो ।।
हरिजन भक्ति विधिवत करो ।।टेक।।
साध संत के संग करि हिय, भाव भक्ती भरो ।
गुरु चरण में करि समर्पण, लेहु युगति खरो ।।
करहु सुमिरन ध्यान गुरु का, मैल मन का हरो ।
आँखि मूँदि के दृष्टि दोनों, मध्य सन्मुख धरो ।।
ब्रह्मज्योति अरु ब्रह्म ध्वनि धरि, पार त्रय पट परो ।
आत्मदर्शन ब्रह्मदर्शन, मोक्ष सुख सगरो ।।
खान पान सुधारि प्रथमहिं, पाप से निबरो ।
‘शाही’ सद्गुरु संत संग अरु, ध्यान सादर बरो ।।
कभी क्या ऐसी रहनि रहूँगा ।
श्री गुरुदेव कृपालु कृपा से, साधु स्वभाव गहूँगा ।।
षट विकार को जीत पाप, सपनेहु नहिं रंच करूँगा ।
सत्य धर्म के पालनार्थ, बाधाएँ सभी सहूँगा ।।
सेवा अरु सत्कार प्यार दे, दुश्मन-मन भी हरूँगा ।
दुखी दीन को हृदय लगा, मन में अति मोद भरूँगा ।।
मान बड़ाई कठिन रोग है, भूलहुँ नहीं बरूँगा ।
दया दीनता क्षमा शीलता, दास भाव निबहूँगा ।।
सतगुरु सम त्रता नहिं जग में, दृढ़ विश्वास धरूँगा ।
‘शाही’ सब तन मन धन अर्पण, करि भव पार परूँगा ।।
भक्त का हार हृदय का हार ।
बिन हारे हरि भक्त न कोई, लो यह हिय में धार ।।
हारे को हरि हैं अपनाते, देते अपना प्यार ।
जीता जग के जाल पड़ा वह, खाता जम का मार ।।
हारो असन वसन अरु आसन, रज तम सिरजनहार ।
हारो पाप विकार छहों को, मान बड़ाई प्यार ।।
माता पिता सहोदर हारो, जग का सब स्त्रोकार ।
हारो सकल जहाँ लगि जग में, आपन आन उचार ।।
तन को हारो मन को हारो, बुद्धी अरु विचार ।
निज को हारि बनो हे ‘शाही’, हरि हृदय का हार ।।
भव्य वेष भले बना लो, यदि न ऊँचा ख्याल है ।
तो वेष तेरा जगत को, ठगने का उत्तम जाल है ।।
संत सतगुरु जो कहा लो, यदि ना वैसा चाल है ।
भीतर से तू है भेड़िया, पर केहरी का खाल है ।।
ब्रह्म वार्त्ता कह कहा लो, वाह-वाह कमाल है ।
पर, ब्राह्मी वृत्ति बिना, जमराज का दलाल है ।।
मन तू साधुता उर आन ।।टेक।।
मिटिहैं दुख दर्द भव के, योनि आवन जान ।
शान्ति सुख अनुपम अलौकिक, मिलहिं पद निरवान ।।
त्यागु लोलुपता विषय की, मान अरु अभिमान ।
काम क्रोध विषाद तजि रहु, पाप से अलगान ।।
क्षमा शील संतोष उर धरि, भाव समता ठान ।
त्याग अरु वैराग्य सेवा, साधु भूषण मान ।।
सन्त संग सतगुरु की सेवा, और साधन ध्यान ।
बात तीनों जान ‘शाही’, साधुता का प्रान ।।
गुरुवर तुझे रिझाऊँ, अरमान में यही है ।
अफसोस क्या करूँ मैं, सामान कुछ नहीं है ।।
तन मन वचन तुम्हारी, सेवा में कुछ लगाता ।
पर हाय बदनसीबी, उर ज्ञान कुछ नहीं है ।।
करके कृपा अहैतुक, यदि तू न रीझ जाओ ।
मुझ दीन-हीन का हित, हर्गिज कहीं नहीं है ।।
हे नाथ! भूल सारे, दुर्गुण शरण में ले लो ।
इसके सिवाय ‘शाही’, अरमान कुछ नहीं है ।।
करहु कृपा करुणानिधान गुरु, मन अनीति तजि मेरो ।
तुव पद पंकज प्रीति निरन्तर, करइ छाड़ि छल केरो ।।1।।
वेद पुराण शास्त्र सन्तन्ह की, सीख अनुग्रह तेरो ।
ऊठत बैठत सोवत जागत, रहउँ सदा उन घेरो ।।2।।
तन मन वचन कर्म हो निर्मल, अरु वैराग्य घनेरो ।
तुम्हरी कृपा साधु गुण सगरो, मम उर करइ बसेरो ।।3।।
दीजै नाथ भक्ति अनपायिनी, भव सरिता कहँ बेरो ।
जनम मरन भव के अगणित दुख, ‘शाही’ होय निबेरो ।।4।।
मुर्शिद मुझको तुझ पै नाज ।।
तू मौला हो गरीब परवर, और गरीब निवाज ।।
दर हकीकत हो आजिजों के, तू ही कारज साज ।।
तू कामिले मुर्शिद तुम्हारा, एक एक अलफाज ।।
करनी धरनी रहनी गहनी, हर हरकत में राज ।।
तू रहीम रहमत से तेरे, रूह करे मेराज ।।
स्याह सफेद महल के ऊपर, सुनै गैब आवाज ।।
आवाज गैब सुन छुटत ऐब, हो फारिग मुहताज ।।
हुआ निजात मिला खालिस सुख, पूरा सकल नियाज ।।
तू बेनजीर रौनके जहाँ, तेरा इकबाल विराज ।।
सदा सलामत मैं भी तुमसे, हे ‘शाही’ सिरताज ।।
करनी करेंगे जैसा भरनी भरेंगे तैसा ।
मानें विश्वास आप कोई होवें ।।1।।
निरधन धनवान होवें, निरबल बलवान होवें ।
ऊँच नीच कुल चाहे, मूरख विद्वान होवें ।।2।।
वैदिक इसलाम होवें, चाहे किरिस्तान होवें ।
बौद्ध जैन धर्मी, चाहे नास्तिक महान होवें ।।3।।
भारत निवासी होवें, अन्य देश वासी होवें ।
गृही बनवासी, चाहे तीरथ निवासी होवें ।।4।।
जीवन क्षेत्र है ऐसा, करनी का बीज जैसा ।
बोवेंगे एक लेकिन, गुना फल अनेक होवे ।।5।।
ईश्वरी विधान जानें, विधि कर्म करना ठानें ।
नेकहू न संशय आनें, ‘शाही’ कल्याण होवे ।।6।।
ऐ मस्त मन कहाँ तू, भूला जहान में है ।
वह जिन्स क्या जिसे पा, फूला गुमान में है ।।
सारा समाँ हे फानी, वही जिस्म की कहानी ।
है चन्द जिन्दगानी, जो शरे आम में है ।।
धोखे में तुम पड़े हो, ज्यों रेग में मिरग हो ।
किस्मत को खो रहे हो, ऐसा यकीन में है ।।
मत रंज दिल में आनो, रब ही अमन है जानो ।
मिलता उसे है मानो, रहबर की रहम में है ।।
मुरशद सुखन को मानो, खिदमत कदम में ठानो ।
इशक में सिदक को आनो, ‘शाही’ शबाब में है ।।
भजन करना है तो भाँड़ा भरम का,
प्रथम दूर सिर से हटाना पड़ेगा ।
इसके लिये संत सतगुरु चरण में,
अटल प्रीति परतीत लाना पड़ेगा ।।
मद मान मत्सर ये दुर्गुण हैं जितने,
इन्हें कोस लाखों भगाना पड़ेगा ।
सदाचार जग में अलौकिक सुमन है,
हृदय वाटिका को सजाना पड़ेगा ।।
जगत का सही रूप दुखमय समझकर,
वैराग्य मन में बढ़ाना पड़ेगा ।
उपकार प्रभु के सतत याद कर-कर,
विरह वेदना को बढ़ाना पड़ेगा ।।
भक्ती की युक्ति हैं सद्गुरु बताते,
जिसे सीख जीवन को ढाना पड़ेगा ।
युक्ती बिना भक्ति ‘शाही’ न होगी,
चौरासी का चक्कर लगाना पड़ेगा ।।
सत्संग बिना सोचो मानव, जग में वह ज्ञान कहाँ होगा ।
जिस ज्ञान की साया में जाकर, अपना कल्याण महा होगा ।।
सत्संग में संत-वचनरूपी, सत् ज्ञान की गंगा बहती है ।
उसमें अवगाहन यदि न किया, सतपथ का ज्ञान कहाँ होगा ।।
मुक्ती का मारग भक्ती है, जो युक्ती बिना नहीं होती ।
युक्ती से भक्ती यदि न किया, तो भव से त्रण कहाँ होगा ।।
सेवा से सद्गुण हैं आते, जिससे जीवन सुखमय होता ।
जिसमें है सेवा भाव नहीं, ‘शाही’ सुख-चैन कहाँ होगा ।।
मान मान मन यह तन तेरा, हीरा रतन अनमोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।1।।
राम कृष्ण अरु ऋषि मुनियों ने, इसकी महिमा गायी है ।
वेद पुराण आदि ग्रंथों में इसकी लिखी बड़ाई है ।।
कलयुग के भी संत हैं जितने, सबका एक ही बोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।2।।
ऐसा यह अनमोल रतन तन, प्रभु ने तुमको है दिया ।
इसको पाकर रे मन मूरख, सोच भला तू क्या किया ।।
जो बीता सो गया बीत दिन, रहे का कम नहीं तोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।3।।
सदाचार सत्संग सतगुरु, ये तीनों सम्बल लेकर ।
करहु भजन विश्वास सुदृढ़ करि, अन्तर्मुख हो चित देकर ।।
ऐसा कर मन मोल बचा ले, ‘शाही’ यह जो चोल है ।
विषयों के पीछे पड़ पगले, कर रहा माटी मोल है ।।4।।
मन भजन करो भगवान, भरोसा क्या कल का ।।टेक।।
बचपन गया जवानी बीती, बूढ़ेपन की क्या परतीती ।
यह तो बुलबुला जल का, भरोसा क्या कल का ।।1।।
आज नहीं कल क्यों तू करता, ऐसा कर किसको है छलता ।
यह वादा अनभल का, भरोसा क्या कल का ।।2।।
टाला टूली में दिन रीता, एक नहीं युग बहुतों बीता ।
जब खबर नहीं पल का, भरोसा क्या कल का ।।3।।
चेतो करो भजन मन लाई, ‘शाही’ विधि सतगुरु से पाई ।
करि आस परम फल का, भरोसा क्या कल का ।।4।।
गुरुदेव रीझ जाओ, अवगुण बिसार सारे ।
ले लो शरण में अपनी, भव से करो किनारे ।।
अति दीन हूँ दुखित हूँ, त्रय व्याधि से व्यथित हूँ ।
भव त्रस से त्रसित हूँ, पाये बिना सहारे ।।
दीजै प्रभू सहारा, धरि ज्योति शब्द धारा ।
हों त्रय पटों से न्यारा, चरणों लगूँ तुम्हारे ।।
हे नाथ अब न टालो, अपनी विरद को भालो ।
बिगड़ी मेरी सँभालो, ‘शाही’ के हे सहारे ।।
संत भेष से होत नहिं, नहीं कथे बहु ज्ञान ।
ना मठ के अधिपति बने, ना तीरथ किये सनान ।।
सन्त हुए सब भेष में, और हुए सब देश ।
पढ़ुआ अनपढ़ुआ हुए, रंकहु हुए नरेश ।।
विषय वासना है नहीं, दुःख का हूआ अन्त ।
चौरासी चक्कर मिटा, ताको कहिये सन्त ।।
शान्ती पद सबसे बड़ा, उससे बड़ा न कोय ।
उस पद से जो जा मिले, सन्त कहावे सोय ।।
श्री सम्पन्न सदा सोई, जो सदगुरु उपदेश ।
मानि सदा सादर रहहिं, वाही के परिवेश ।।
सद्गुरु का उपदेश यह, जग स्त्रष्टा कोई एक ।
आदि अन्त कुछ है नहीं, वाका नाम अनेक ।।
तन में सबके उसी का, अंश कहाता जीव ।
वह अंशी सब जीव का, एकमात्र है पीव ।।
गुण से रहित परा प्रकृति, अपरा सगुणहिं मान ।
इन दोनों के योग से, सारी सृष्टी जान ।।
रुचि मत कर संसार के, विषयों के तू माहिं ।
है तो प्रभु की मौज से, पर सुख रंचहु नाहिं ।।
कीन्ह विषय में बोध जो, सुख का ऐसा जान ।
वर्षों सूखे हाड़ में, सुख मानत ज्यों स्वान ।।
साध हिये में परम सुख, मन विषया रस लीन ।
मगर पीठ चढ़ि चाहत, सागर पारहिं कीन ।।
रहनी लेहु सम्हारि निज, सतगुरु के उपदेश ।
अच्छी रहनी के बिना, उपजत सकल कलेश ।।
शिष्य सोइ जो सीख ले, चले ताहि अनुकूल ।
कहा सुना मानै नहीं, शिष्य नहीं वह शूल ।।
क्षार होय जरि पाप सब, अरु परमारथ होय ।
गुरु आज्ञा उपदेश पर, अमल करै जो कोय ।।
या तन में तन और है, जानि लेहु यह भेद ।
सब तन छूटे जीव का, प्रभू से होय अभेद ।।
दरस परस अरु सेव करि, गुरु को लेहु रिझाय ।
भक्ति दान आशीष से, तीनों तपन बुझाय ।।
रक्षक श्री गुरुदेव सम, को जग में दूजा ।
सर्वभाव से कपट तजि, कर इनकी पूजा ।।
खटपट मन की सब मिटै, गुरु के मानस जाप ।
जाप सिद्ध तब जानिये, जाप होय अरु आप ।।
नीके विधि गुरु ध्यान करि, लीजै हिये उगाय ।
तब गुरु गुण सब जाहिंगे, तेरे हिये समाय ।।
चार चार अरु चार पर, मन सह दृष्टि टिकाय ।
एक टक्क निरखत रहो, अद्भुत ज्योति लखाय ।।
हिय मंदिर में ज्योति पुनि, शब्द प्रभू की बाँह ।
इन दोनों के बीच पड़ि, भक्त मिले जा नाह ।।
येन केन प्रकारेण, लिखा जो है हमने ।
सब गुरु का उपदेश है, ना ‘शाही’ के अपने ।।
श्री सतगुरु पद कमल में, सीस राखि कर जोर ।
बार बार विनती करौं, सतगुरु बन्दीछोर ।।
सतगुरु तुम सम है सगा, दूजा कोइ न और ।
देखा नजर घुमायकर, जग में सबहीं ठौर ।।
तबही जीवन सफल है, सबही मिटै अनिष्ट ।
जब तुम नाथ विलोकिहौ, करि किरपा की दृष्टि ।।
गुन तो मुझमें है नहीं, हूँ अवगुन की खान ।
फिर भी आशा बहुत है, जानि तुम्हारी बान ।।
रुचिकर भक्ति लगै हमें, अरुचि विषय सों होय ।
पै गुरु तुम्हरी कृपा बिनु, रुचि अरुचि न कोय ।।
मन मंदिर जिनके बसो, तिनके भाग्य महान ।
सरबर कबहूँ ना करै, कोई सकल जहान ।।
हानि लाभ बिसराय जो, सेव करे निहकाम ।
ऐसे सेवक पर कृपा, गुरु की आठो याम ।।
राजा हो या रंक हो, मूरख या विद्वान ।
समदरशी गुरुदेव की, सब पर दृष्टि समान ।।
जलवत गुरु की कृपा है, बरसत सबही ठौर ।
सेवक गड्ढा रूप जो, तामे ठहरत दौर ।।
कीन्हो दया दयाल गुरु, लीन्हों शरण लगाय ।
भक्ति भेद बतलाय कर, सतपथ दियो धराय ।।
जबतक यह तन है सबल, बुद्धी देती साथ ।
तबही तक गुरु भक्ति का, अवसर जानो हाथ ।।
यह मत जानो रे मना, ऐसहिं सब दिन जाय ।
जनम मरन दुख याद करि, ‘शाही’ भक्ति कमाय ।।
अब की करीयै भगवान हो, उमर विहान भेलै हो, राम ।।टेक।।
बालापन गेलै खेल-कूद में, तरुणाई मद-मान ।
बिरधापन में धन अरु जन के, त्रिस्ना छुवै छै असमान हो ।।
ना हम कइलौं साधु संगतिया, ना सुनलौं कछु ज्ञान ।
ना हम कइलौं गुरु के भगतिया, कोना के हैतौ कल्याण हो ।।
बूझै रहियै देह अमर छै, नहिं जीवन अवसान ।
अब तो जम के मुंगरी याद करि, थर-थर करै छै मोर प्राण हो ।।
लाज लगइ छै विनय करै में, करनी आपन जान ।
‘शाही’ मन संतोष जानि यह, प्रभु छथ कृपानिधान हो ।।
अरे मन सोच ले केवल, भजन गाने से क्या होगा ।
समय का मूल्य न जाना, तो पछताने से क्या होगा ।।
न दी दिल में जगह गुरु को, पखारा पद न आँसू से ।
विरह में नींद न खोया, तो शिष होने से क्या होगा ।।
भरोसा है किया जग का, गुरु के आस को तजकर ।
नहीं विश्वास जब दिल में, तो गुण गाने से क्या होगा ।।
रिझाया खूब दुनिया को, सुना बातें बना बहुतों ।
रिझाया यदि न अपने को, रिझा दुनिया को क्या होगा ।।
सोच लो समय के रहते, बना लो ‘शाही’ जीवन को ।
समय जब बीत जाएगा, बहा आँसू को क्या होगा ।।
प्रभु ने मानुष जनम तुमको कैसा दिया ।
सोच रे मन ! इसे पा भला क्या किया ।।टेक।।
तरसते हैं जिसके लिए देवता ।
इसकी महिमा है कैसी तुम्हीं अब बता ।
हाय ऐसा अमोलक रतन खो दिया ।।1।।
ये तन मानो भव-सिन्धु पै सेतु है ।
वो सदानन्द पाने का भी हेतु है ।
इसे विषयों के पीछे बेरथ कर दिया ।।2।।
जो गया बीत दिन सो गया बीत ही ।
ये बचा भी न जाए उसी रीत ही ।
इसके बचाने का यदि सुजतन न किया ।।3।।
पंच विषयों से निज को लिया मोड़ ना ।
पंच पापों को जिसने दिया छोड़ ना ।
गुरू युक्ती से भक्ती ‘शाही’ ना किया ।।4।।
ऊ दिन कहिया दिखाइब, बता दीं गुरुजी ।।टेक।।
जहिया से रउरे चरन कमल में,
अविचल शरधा जमाइब, बता दीं गुरुजी-----।।1।।
छोड़ि के कपट छल, निरमल मन से,
हरषित हृदय अरु पुलकित तन से ।
राउर विमल जस गाइब, बता दीं गुरुजी-----।।2।।
दोष हरे वाला, राउर दरशन तोष करे वाला,
राउर परशन। केतनो करब न अघाइब, बता दीं गुरुजी--।।3।।
जोति रूप रउरे आपन दिखाके,
नादरूप रउरे आपन परखाके ।
‘शाही’ के शरण लगाइब, बता दीं गुरुजी----------।।4।।